उत्तराखंड में भू-कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भूकानून: स्थायी निवास और मूल निवास पर

एक दृष्टिकोण

भारत में भू-कानून से संबंधित एक महत्वपूर्ण प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन साल 1950 में जारी हुआ था, जो उत्तराखंड में मूल निवास और स्थायी निवास के कानूनी जटिलताओं के अध्ययन के लिए एक आधारशिला साबित हुआ। इस संबंध में, कानूनी विशेषज्ञ पंकज पैन्यूली ने बताया कि 8 अगस्त 1950 और 6 सितंबर 1950 को राष्ट्रपति द्वारा एक नोटिफिकेशन जारी किया गया था, जिसे बाद में 1961 में गजट नोटिफिकेशन के तहत प्रकाशित किया गया। इस नोटिफिकेशन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि 1950 से जो व्यक्ति जिस राज्य में रह रहा है, वह उसी राज्य का मूल निवासी माना जाएगा। इस नोटिफिकेशन ने मूल निवास की परिभाषा और अवधारणा को भी स्पष्ट किया था।

 

1977 में मूल निवास पर पहली कानूनी बहस

भारत में मूल निवास से संबंधित पहली कानूनी बहस 1977 में हुई, जब 1961 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य का विभाजन हुआ। मराठा समुदाय ने इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में उठाया, जिसके बाद देश की सर्वोच्च अदालत की संवैधानिक पीठ, जिसमें आठ जज शामिल थे, ने 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को सभी राज्यों में लागू करने का आदेश दिया। इस फैसले में 1950 के नोटिफिकेशन को मानते हुए मूल निवास की सीमा को उसी साल तक सीमित रखा गया।

 

उत्तराखंड में राज्य गठन और स्थायी निवास का उद्भव

साल 2000 में उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ के रूप में तीन नए राज्यों का गठन हुआ। झारखंड और छत्तीसगढ़ ने 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्यता दी, लेकिन उत्तराखंड में नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व वाली बीजेपी की अंतरिम सरकार ने एक नई स्थायी निवास नीति लागू की। इस नीति के तहत, उत्तराखंड में 15 साल से निवास कर रहे लोगों को स्थायी निवासी का दर्जा दिया गया। इस नई व्यवस्था में, मूल निवास के साथ स्थायी निवास को भी मान्यता दी गई, जो कि राज्य में एक नई प्रवृत्ति की शुरुआत थी।

 

2010 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के फैसले

2010 में, उत्तराखंड के हाईकोर्ट और देश के सुप्रीम कोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें उत्तराखंड के गठन के समय निवास कर रहे लोगों को मूल निवासी के रूप में मान्यता देने की मांग की गई थी। हालांकि, दोनों ही अदालतों ने 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन के पक्ष में फैसला दिया, और 1950 का मूल निवास उत्तराखंड में लागू रहा।

 

2012 में मूल निवास का अंत

2012 में, उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार के दौरान, मूल निवास और स्थायी निवास के बीच एक महत्वपूर्ण बदलाव हुआ। 17 अगस्त 2012 को उत्तराखंड हाईकोर्ट के सिंगल बेंच ने फैसला दिया कि 9 नवंबर 2000 के बाद से राज्य में निवास करने वाले लोगों को मूल निवासी माना जाएगा। यह निर्णय 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन और उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धाराओं का उल्लंघन था, लेकिन सरकार ने इस फैसले को चुनौती देने के बजाय इसे स्वीकार कर लिया और 1950 का मूल निवास अस्तित्व में नहीं रहा। तब से, उत्तराखंड में केवल स्थायी निवास की व्यवस्था ही लागू है।

 

वर्तमान तकनीकी खामियां और आंदोलन की तैयारी

उत्तराखंड में मूल निवास के स्वाभिमान को लेकर एक नया आंदोलन तैयार हो रहा है। पंकज पैन्यूली और अन्य तकनीकी विशेषज्ञ इस मामले में सरकार की उदासीनता पर सवाल उठा रहे हैं और 2012 के हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। पैन्यूली का मानना है कि सरकार को 2012 के फैसले को चुनौती देनी चाहिए थी, क्योंकि यह कानूनी दृष्टिकोण से त्रुटिपूर्ण है। वह और अन्य आंदोलनकारी इस मुद्दे को अदालत में ले जाने की योजना बना रहे हैं, ताकि मूल निवास को पुनः स्थापित किया जा सके।

 

सरकार की इच्छाशक्ति का महत्व

तकनीकी विशेषज्ञ पंकज पैन्यूली का कहना है कि इस पूरे मुद्दे को हल करने के लिए सरकार की इच्छाशक्ति बेहद जरूरी है। हालांकि, कई बार अदालतें अपने निर्णय देती हैं, लेकिन सरकारें अपनी सहूलियत के अनुसार कानून बनाती हैं या अध्यादेश जारी करती हैं। राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती के अनुसार, जनता जन आंदोलन के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकती है और तकनीकी पहलुओं पर अदालत में लड़ाई लड़ी जा सकती है, लेकिन धरातल पर काम करने की जरूरत और प्रदेश के निवासियों के हितों की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है। अगर सरकार अपनी जिम्मेदारी को समझे, तो यह मसला आसानी से सुलझ सकता है।

 

Viren Bisht: I am the founder of The Pahadi News-Khabarsaar. Despite having expertise in hotel management, he has also taken steps in the direction of journalism. Through my website thepahadinews.com I reach out to people about the culture, news, and important issues of the mountains. My aim is to provide correct and accurate information to every person associated with Uttarakhand and Himalayan regions.

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